शिमला,14 अप्रैल 2025, न्यूज व्यूज पोस्ट
: हिमाचल प्रदेश में वन अधिकार कानून 2006 को लेकर एक नई विवादित स्थिति उत्पन्न हो गई है। राज्य के प्रमुख पर्यावरण और सामाजिक संगठनों ने वन विभाग की ओर से जारी पत्र पर कड़ी आपत्ति जताई है, जिसमें वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन को लेकर शंका व्यक्त की गई है। इन संगठनों का कहना है कि यह पत्र संविधान द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का उल्लंघन है और राज्य में वनाश्रित समुदायों के अधिकारों पर प्रहार करने की कोशिश की जा रही है।
इस पत्र को राज्य के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (HoFF) ने जिला उपायुक्तों और अन्य अधिकारियों को भेजा है, जबकि राज्य सरकार और जनजाति विभाग इसके क्रियान्वयन को लेकर लगातार प्रयास कर रहे हैं।
कानून के प्रावधानों पर आपत्ति
पर्यावरण और वन अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि वन विभाग का यह पत्र “कानून के विपरीत” और “अनावश्यक” है। राज्य में वन अधिकार कानून का क्रियान्वयन पहले से ही विलंबित है, और इसे लेकर जिला स्तरीय अधिकारियों द्वारा चलाए गए प्रशिक्षण सत्रों से इसका उद्देश स्पष्ट था। राज्य के जनजाति मंत्री श्री जगत सिंह नेगी ने इस विषय पर अधिकारियों के साथ संवादात्मक बैठकें आयोजित की थीं, लेकिन वन विभाग का हस्तक्षेप अब इसे और जटिल बना रहा है।
वन विभाग का रवैया और संविधान विरोधी कदम
इस पत्र में वन विभाग ने यह आशंका व्यक्त की है कि वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन से राज्य के वनों का विनाश हो सकता है। यह दृष्टिकोण पूरी तरह से गलत है, क्योंकि वन अधिकार कानून का उद्देश्य वनाश्रित समुदायों को उनके ऐतिहासिक अधिकारों की बहाली करना है, जो ब्रिटिश काल में उनसे छिन गए थे। इसके बजाय, यह कानून इन समुदायों को वन संसाधनों के संरक्षण में भागीदार बनाता है।
वन अधिकार कानून की प्रक्रिया
वन अधिकार कानून के तहत दावे की प्रक्रिया स्पष्ट और पारदर्शी है, जिसमें ग्राम सभा, पंचायत, वन विभाग और राजस्व अधिकारियों का समन्वय आवश्यक है। इस पूरी प्रक्रिया में वन विभाग की भूमिका सुनिश्चित है, और ऐसे में जिला स्तरीय अधिकारियों को इस तरह का पत्र जारी करना न केवल अनुचित है, बल्कि इसे कानून के अमल में बाधा डालने के रूप में देखा जा सकता है।
वन अधिकारों को नकारना सीधे-सीधे न्याय का उल्लंघन
संविधान द्वारा निर्धारित वन अधिकारों की रक्षा करते हुए इन संगठनों ने वन विभाग की इस संकीर्ण सोच को नकारते हुए, यह दावा किया है कि राज्य में हजारों वनाश्रित परिवारों को उनके अधिकारों से वंचित रखना एक गंभीर अपराध होगा। विशेष रूप से, यह चिंताजनक है कि वन विभाग अन्य परंपरागत वन निवासियों (OTFD) की पात्रता को लेकर भ्रम फैलाने की कोशिश कर रहा है, जबकि कानून इन समुदायों को भी अधिकार प्रदान करता है जो 2005 से पहले तीन पीढ़ियों से वन भूमि पर निर्भर हैं।
अगला कदम: वन विभाग से संवाद और कानून का पालन
इस संदर्भ में, पर्यावरण और वन अधिकार संगठनों ने राज्य सरकार से अपील की है कि वे इस मामले में तत्काल हस्तक्षेप करें और वन विभाग से संवाद स्थापित करें। उनका मानना है कि अगर वन अधिकार कानून को सही तरीके से लागू किया जाए, तो हिमाचल प्रदेश के समृद्ध वन क्षेत्र और वहां के समुदायों के बीच सामूहिक भागीदारी से जैव विविधता और पारिस्थितिकी का संरक्षण हो सकेगा।
संपर्क करें:
- जिया लाल नेगी, हिमलोक जाग्रति मंच : 9736760022
- गुलाब सिंह, सिरमौर वन अधिकार मंच : 8219004969
- गुमान सिंह, हिमालय नीति अभियान : 8219728607
- मानषी आशर, हिमधरा पर्यावरण समूह : 9816345198