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भारत को मिली पहली राष्ट्रीय सहकारी यूनिवर्सिटी: त्रिभुवन सहकारी यूनिवर्सिटी के रूप में नई दिशा

भारतीय संसद में हाल ही में पारित विधेयक के साथ देश को उसकी पहली राष्ट्रीय सहकारी यूनिवर्सिटी—त्रिभुवन सहकारी यूनिवर्सिटी—का उपहार मिला है। यह कदम भारत के सहकारी आंदोलन को एक मजबूत बौद्धिक आधार प्रदान करने के साथ-साथ इसे भविष्य के लिए तैयार करने की दिशा में मील का पत्थर माना जा रहा है।

सहकारी आंदोलन को मिला संस्थागत आधार

भारत में 8 लाख से अधिक सहकारी संस्थाएं और 28 करोड़ से ज़्यादा सदस्य हैं। ये संस्थाएं न केवल कृषि, डेयरी और आवास जैसी जरूरतों को पूरा करती हैं, बल्कि सामाजिक समरसता और आर्थिक समानता की मिसाल भी पेश करती हैं। हालांकि इस क्षेत्र में शिक्षा और प्रशिक्षण की अभी तक समुचित व्यवस्था नहीं थी। त्रिभुवन सहकारी यूनिवर्सिटी इसी कमी को दूर करने के लिए एक बड़ा कदम है।

क्यों खास है यह यूनिवर्सिटी?

  1. नई पीढ़ी को तैयार करना: यह संस्थान युवाओं को सहकारी मूल्यों और व्यावसायिक दक्षताओं से लैस करने का कार्य करेगा, जिससे वे जिम्मेदार नेतृत्व की भूमिका निभा सकें।

सरकार के प्रयासों को मिलेगा बल

पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने PACS के कम्प्यूटरीकरण, बहुउद्देशीय सहकारी समितियों के गठन, और सहकारी क्षेत्र को कर व ऋण में राहत देने जैसे कई अहम कदम उठाए हैं। यह यूनिवर्सिटी इन पहलों को एक शिक्षित, प्रशिक्षित और सक्षम कार्यबल के ज़रिए नई ऊर्जा देगी।

वैश्विक दृष्टिकोण

त्रिभुवन सहकारी यूनिवर्सिटी केवल एक शैक्षणिक संस्था नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय और वैश्विक संवाद मंच बन सकती है। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा ICA ग्लोबल कोऑपरेटिव सम्मेलन 2024 में दिया गया आह्वान—दक्षिणी देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा देने का—इसी दिशा में संकेत करता है।

निष्कर्ष

एक ऐसे समय में जब विश्व सतत, लोकतांत्रिक और समावेशी आर्थिक मॉडल की तलाश में है, भारत की यह पहली सहकारी यूनिवर्सिटी न केवल देश के सहकारी आंदोलन को सशक्त बनाएगी, बल्कि वैश्विक नेतृत्व के लिए भी भारत की स्थिति को मजबूत करेगी। यह संस्थान आने वाली पीढ़ियों को वह दृष्टि, शिक्षा और मंच देगा जिसकी मदद से वे सहकारिता के ज़रिए एक बेहतर भविष्य गढ़ सकें।


लेखक: बालासुब्रमण्यम अय्यर, क्षेत्रीय निदेशक, इंटरनेशनल कोऑपरेटिव एलायंस एशिया एंड पैसिफिक

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