मंडी, 13 सितंबर । न्यूज़ व्यूज पोस्ट–: भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मंडी के शोधकर्ताओं ने अमेरिका स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ सिनसिनाटी के साथ गठजोड़ करके जीवित कोशिका की उपसंरचना के आंतरिक ढांचे और कार्यो के अध्ययन के लिये सक्षम तरीका विकसित किया है। शोधकर्ताओं ने इस प्रक्रिया में धातु के नैनो तत्वों के झुंड का उपयोग किया जिस प्रक्रिया को ढांचागत प्रदीपन माइक्रोस्कोपी कहा जाता है। इसका उपयोग लाइसोसोम की विशेषताओं एवं कार्यो के बेहद सूक्ष्म अन्वेषण और माइटोकोंड्रिया जैसे महत्वपूर्ण कोशिका तत्चों से उनके संवाद को समझने के लिये किया जाता है।
इस शोध का परिणाम प्रतिष्ठित पत्रिका अमेरिकन केमिकल सोसाइटी मैटीरियल लेटर्स में प्रकाशित किया गया है। इसके सह लेखक आईआईटी मंडी के स्कूल आफ बेसिक साइंसेज के प्रो.छायन के नंदी और आईआईटी मंडी में उनके शोधार्थी आदित्य यादव तथा अमेरिका स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ सिनसिनाटी के डा.किंगक्यांग, डा.झिकी त्यान, डा.जुआन ग्वो और डा. ज्याजे दियो शामिल हैं ।
लाइसोसोम जीवित कोशिका का एक महत्वपूर्ण तत्व है। यह विभिन्न कोशिका प्रक्रियाओं में शामिल होता है तथा माइटोकोंड्रिया जैसे कोशिका तत्वों के साथ संवाद करता है। लाइसोसोम आक्रमणकारी वायरस और बैक्टिरिया को नष्ट कर देता है। अगर किसी कोशिका के नुकसान की भरपायी नहीं की जा सकती है तब लाइसोसोम उसे स्वयं नष्ट करने में मदद करता है। इस प्रकार इसे ‘आत्महत्या की थैली’ कहा जाता है।
लाइसोसोम के काम नहीं करने के कारण न्यूरोडिजेनेरेटिव डिसार्डर, प्रतिरोधी प्रणाली संबंधी डिसार्डर, कैंसर सहित विविध प्रकार के रोग उत्पन्न हो सकते हैं। इसलिये लाइसोसोम के ढांचे और कामकाज के विश्लेषण और उसपर नजर रखने से कुछ रोगों के खबरों का अनुमान लगाने में मदद मिलती है और इन रोगों के लिये नयी दवाओं के विकास करने में मार्गदर्शन मिलता है।
इन सूक्ष्म ढांचे को देखने के नये तरीकों के विकास की जरूरत की व्याख्या करते हुए आईआईटी मंडी के प्रो. छायन के नंदी ने कहा, ‘‘ लाइसोसोम आकार में माइक्रोन या मिलीमीटर के हजारवें हिस्से के बराबर होता है। इसकी आंतरिक संरचना 200 नैनोमीटर (एक माइक्रोन के हजारवें हिस्से) के आर्डर में होता है। नियमित माइक्रोस्कोप से इस आकार के ढांचे के ब्यौरे का पता नहीं लगाया जा सकता है।’’
आईआईटी मंडी के शोधकर्ताओं ने शोधकर्ताओं ने इस प्रक्रिया में ढांचागत प्रदीपन माइक्रोस्कोपी तकनीक का उपयोग किया ताकि लाइसोसोम के अंतरिक ढांचे का पता लगाया जा सके । यह तकनीकी प्रकाश के ढांचागत स्वरूप और लगभग इंफ्रारेड स्पेट्रोस्कोपी के हस्तक्षेप के पैटर्न के नमूनों के संदीपन पर आधारित है।
ढांचागत प्रदीपन माइक्रोस्कोपी कोई नयी तकनीक नहीं है लेकिन इस अंतर संस्थागत कार्य की विशेषता यह है कि इसमें लाइसोसोम के रंगों की बजाए धातु के नैनो तत्वों के झुंड का उपयोग किया गया है और इसके कारण तकनीक काफी बेहतर हुई है।
ढांचागत प्रदीपन माइक्रोस्कोपी द्वारा लाइसोसोम का पता लगाने के लिये उपयोग किये जाने वाले सामान्य रंग माध्यम की अम्लता के प्रति संवेदनशील होता है और समय के साथ विरंजित हो जाता है। शोधकर्ताओं ने इसके आंतरिक ढांचे के अध्ययन के लिये लाइसोसोम रंगों की बजाए सोने और चांदी जैसे खास तरह के धातुओं के छोटे झुंड का उपयोग किया जो मानव के बाल की चौड़ाई के एक लाख गुणा छोटा है।
शोध के बारे में जानकारी देते हुए आईआईटी मंडी के शोधार्थी आदित्य यादव ने कहा, ‘‘ हमने जैविक तत्वों के झुंड को जैविक रूप से अनुकूल प्रोटीन के साथ परिवर्तित किया जिसे बोवाइप सिरम एल्बूमिन कहा जाता है और इनका उपयोग मस्तिष्क के आवरण में लाइसोसोम के परस्पर व्यवहार के तौर तरीकों पर नजर रखने के लिये किया । विशेष तौर पर हमने उस प्रक्रिया का अध्ययन किया जिसमें लाइसोसोम का पुनर्चक्रण कोशिका के भीतर माइटोकोंड्रिया को नुकसान पहुंचाता है।’’
प्रोटीन लेपित धातु के अति सूक्ष्म झुंड का उपयोग लाइसोसोम की गतिविधियों पर नजर रखने के लिये किया जाता है जो विस्तारित अवधि (12 दिनों से अधिक) के लिये होता है । इससे राइबोसोम और माइटोकोंड्रिया के बीच संवाद से जुड़ी विखंडन, संलयन, छूओ और आगे बढ़ो प्रक्रियाओं के बारे में अध्ययन करने का काफी अवसर मिलता है।
इसके अलावा, अपेक्षा के अनुरून इन अति सूक्ष्म झुंड (नैनो क्लस्टर्स) में विरंजित होने से जुड़ी कोई समस्या नहीं होती है और इसमें माध्यम के अम्लता से प्रभावित होने जैसी बात भी नहीं होती। चूंकि ये नैनो क्लस्टर्स इतने छोटे थे कि कोशिका और यहां तक कि लाइसोसोम जैसे उप कोशिकीय ढांचे में प्रवेश करने के लिये पर्याप्त थे, ऐसे में इनका उपयोग कोशिकाओं के महत्वपूर्ण उप संरचनाओं के कामकाज को समझने के लिये किया जा सकता है।